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रविवार, 10 नवंबर 2013

सीबीआई : काम का ना धाम का-सौ मन अनाज का।

सीबीआई का बॉल खुद उछलकर माननीय उच्चतम अदालत के पाले में आ गिरा है। माननीय उच्चतम अदालत ने कई बार सरकार को इसे ठीक करने के निर्देश भी जारी किए थे। आज अवसर है कि इस सफेद हाथी को समाप्त कर नये सिरे से इसके गठन की नई प्रक्रिया शुरू की जानी चाहिए जो सीधे तौर पर न्यायालय क्षेत्र के अधीन हो ना कि सत्तासीन नेताओं के अधिन। यह सफेद हाथी है। गांव में एक कहावत है ‘‘काम का ना धाम का-सौ मन अनाज का।’’

गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने 6 नवंबर 2013 को अपने एक फैसले में कहा कि ‘‘दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना (डीएसपीई) अधिनियम 1946 के तहत गठित ‘सीबीआई‘ पुलिस बल नहीं है और ‘सीबीआई‘ इस अधिनियम का न तो एक अवयव है और न ही हिस्सा। इस फैसले में कहा गया है कि जहाँ हम ‘सीबीआई‘ की वैधता बनाए रखने से इनकार करते हैं और घोषित करते हैं कि ‘सीबीआई‘, डीएसपीई अधिनियम 1946 विधान का वैध हिस्सा नहीं है, वहीं हम यह पा रहे हैं कि सीबीआई न तो डीएसपीई अधिनियम का अवयव है और न ही हिस्सा है और इसीलिए डीएसपीई अधिनियम 1946 के तहत गठित ‘सीबीआई‘ को ‘‘पुलिस बल’’ नहीं माना जा सकता। इस प्रकार गुवाहाटी उच्च न्यायालय की दो सदस्यीय खंडपीठ ने सीबीआई गठित करने के गृह मंत्रालय के 1 अप्रैल 1963 के प्रस्ताव को खारिज कर दिया।

यह निर्णय एक अपील जो सन् 2008 में गुवाहाटी उच्च न्यायालय में 'नवीन कुमार' के मामले में केश नम्बर 119/2008 जो कि 'बीएसएनएल' के एक कर्मचारी के मामले के आपराधिक मामले की सीबीआई द्वारा जांच किए जाने के विरोध में की गई अपील के संदर्भ में दिया गया है।

करीब छह साल पहले गुवाहाटी उच्च न्यायालय की ही एक सदस्यीय पीठ ने 'नवीन कुमार' की याचिका को खारिज कर दिया था, लेकिन अब न्यायमूर्ति आई.ए.अंसारी और न्यायमूर्ति इंदिरा शाह की खंडपीठ ने गृह मंत्रालय के 1963 के उस संकल्प को ही गैरकानूनी करार दिया है, जिसके तहत सीबीआई के गठन का दावा किया जाता रहा है। अदालत ने दस्तावेज़ों की रोशनी में यह टिप्पणी की कि सीबीआई न तो दिल्ली स्पेशल पुलिस इस्टेब्लिशमेंट का अंग है, न ही इसका हिस्सा। इसका गठन न तो संयुक्त कैबिनेट का फैसला था और न ही इसके गठन को राष्ट्रपति की मंजूरी मिली थी, जबकि इस तरह की एक केंद्रीय जांच एजेंसी का गठन कानून बनाकर ही होना चाहिए था। अदालत का मंतव्य है, कि चूंकि ऐसा नहीं किया गया, इसलिए सीबीआई न तो पुलिस की तरह व्यवहार कर सकती है, न वह अदालत में आरोप पत्र दाखिल कर सकती है और न ही उसे किसी की गिरफ्तारी करने का अधिकार है।

सीबीआई पर गुवाहाटी हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में आनन-फानन में एक अपील दायर कर दी । सरकार ने अपील में कहा कि इस फैसले से 10 हजार केस पर इसका असर पड़ेगा। सीबीआई के गठन को असंवैधानिक बताने वाले गुवाहाटी हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ शनिवार को शाम साढ़े चार बजे सुनवाई हुई। सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले पर फिलहाल रोक लगा दी। मामले की अगली सुनवाई 6 दिसम्बर को होगी।

हालाँकि दिल्ली की बौखलाई केंद्रीय सरकार के लिए जहाँ पहाड़ ही टूट पड़ा हो । वहीं अदालत में सजा काट रहे लालू यादव व अन्य कई मामले में जेल में बंद सीबीआई के शिकारी अदालत से गुहार लगा दी है कि अब तो हमको भी बहार निकालो भाई इस पिंजड़े से।

मजे की बात यह है कि इस तोते ने कई कमाल भी किये हैं। मसलन 1984 के सिख दंगों की फाइल को पिछले 25 साल से चबा-चबा कर खा गए कोई निर्णय पर नहीं पंहुच पाए। 60 हजार की फौज 10 हजार से अधिक मामले। एक-एक ममला 25 साल, सोचे कितना फायदा होता होगा इस विभाग को। चारा घोटाला की जांच कर रहे इनके पूर्व जाँचकर्ताओं की फाइल ये भी चबा डालते हैं और फिर नई जांच शुरू कर देते हैं। मजा ही मजा है इस विभाग को। सरकार भी खुश ये भी खुश।

भाई ! काम कितना भारी है! और तो और इनके ऊपर देश चलाने की जिम्मेदारी भी तो है। इस यूपीए-2 की सरकार का तो पूरा दामोदार ही सीबीआई के ऊपर ही ठिका हुआ था। तभी तो मुलायम यादव और मायावती दोनों यूपीए-2 सरकार को पानी पी-पीकर गाली देते रहे परन्तु जहां मामला संसद में मतदान का आता, तुरंत पलट जाते। इनको सांप्रदायिकता याद आने लगती या इनको इनकी नानी याद आने लगती थी। अब जब सरकार का कार्यकाल प्रायः लगभग समाप्त के कगार पर है तो इनको सीबीआई ने इनको इनकी ईमानदारी का प्रमाणपत्र दे दिया। आपको याद ही होगा कि इसी मुलायम के चक्कर में एक बार ममता दीदी भी गच्चा खा चुकी है। जब ममता दीदी से वादा कर रातों-रात मुलायम यादव जीजीजीजीजी ने अपना स्टैंड ही बदल लिया था, ममता दीदी ताकती ही रह गई।

भाई ! हैं न इस तोते का कमाल! सांप्रदायिकता का जादुई चाबूक! क्यों गलत कहा क्या? मजे की बात देखिये कभी इस तोते पर उच्चतम अदालत कड़ी टिप्पणी करती है, तो कभी कोई पर इसके सेहत को कुछ फर्क नहीं पड़ता। संसद में तो यह संस्था राजसत्ता के खेल का हिस्सा बन चुकी हैं।

इस परिपेक्ष को नजर रखें तो माननीय गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने सही समय पर छक्का मारा है। केंद्र सरकार चारों खाने चित दिखाई दे रही है। कई तरह की दलील दे रही है, अपने पापों को दलीलों से सही ठहराने का प्रयास में लग गई है। इनको एक बात तो समझ में आनी ही चाहिए कि जब उच्चतम अदालत ने दागी सांसदों और विधायकों के खिलाफ जब आदेश दिया था तो संसद में बैठे सारे दागी सांसद एक साथ चिल्लाने लगे थे कि अदालत को विधायिका के मामले में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। सबने मिलकर इसे संसद की गरिमा पर हमला करार दिया था। अदालत पर गंभीर आरोप भी जड़ने लगे थे। चोर दरवाजे से दागी अध्यादेश लाने का प्रयास भी किया गया। महामहिम राष्ट्रपति महोदय ने इस दागी अध्यादेश को हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया तो इन लोगों ने श्री राहुल गांधी का उपयोग कर अपनी इज़्ज़त बचाई।

अब पुनः इनके भाई सब जेल से ही चिल्लाने लगे, हमें छोड़ों । मौका है सबको आजाद करने का। अब इनको सीबीआई की इतनी चिंता कैसे हो गई? जब इनको उच्चतम न्यायालय का निर्णय इतना बुरा लगता है जिसके खिलाफ ये लोग दागी अध्यादेश तक ला सकते हैं तो आज इनको सीबीआई को बचाने के लिए इसी अदालत के पास जाने की क्या जरूरत नजर आ गई? सच तो यह है कि जिस आधार को लेकर गुवाहाटी के माननीय उच्च न्यायालय ने अपना निर्णय दिया है वह ना सिर्फ तर्क संगत है, सही भी है। इसलिए बौखलाई कांग्रेस की सरकार को उच्चतम अदालत से कोई सफलता मिलेगी ऐसी उम्मीद नहीं लगती मुझे। सीबीआई का बॉल खुद उछलकर माननीय उच्चतम अदालत के पाले में आ गिरा है। माननीय उच्चतम अदालत ने कई बार सरकार को इसे ठीक करने के निर्देश भी जारी किए थे। आज अवसर है कि इस सफेद हाथी को समाप्त कर नये सिरे से इसके गठन की नई प्रक्रिया शुरू की जानी चाहिए जो सीधे तौर पर न्यायालय क्षेत्र के अधीन हो ना कि सत्तासीन नेताओं के अधिन। यह सफेद हाथी है। गांव में एक कहावत है ‘‘काम का ना धाम का-सौ मन अनाज का।’’ जयहिन्द!

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