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बुधवार, 25 दिसंबर 2013

आम आदमी की सरकार -शम्भु चौधरी

कांग्रेसी नेताओं के अहंकार ‘‘हम चुनकर आयें हैं, हमसे बात करना हो तो चुन कर आयें। जनता ने प्रतिनिधित्व करने का दायित्व हमें दिया है। आपलोग एक भीड़ का हिस्सा हो।’’ जैसे शब्दों का चयन करना और उनको देश की जनता को सीधे तौर इस बात की चुनौती देना कि राजसत्ता में जनता कि नहीं नेताओं की बात सुनी जाती है। आखिरकार दिल्ली की जनता ने इनके इस अहंकार को नस्तनामूद कर दिया।
श्री प्रमोद शाह की एक कविता है-
इंतजार और नही, और नहीं, और नहीं
गर बदलना है इसे, आज बदलना होगा। 

आम आदमी पार्टी का उदय एक ऐसे समय में हुआ है जब देश की प्रायः सभी राजनैतिक पार्टियों के भीतर अधिकांशतः नेतागण भ्रष्टाचार में लिप्त हो चुके हैं। धीरे-धीरे इनकी जड़ें इतनी मजबूत हो चूंकि है कि ये लोग भ्रष्टाचारियों व दागी नेताओं को सही ठहराये जाने के पक्ष में कई तरह के तर्क देते नहीं थकते। इन सबके बीच दिल्ली विधानसभा के चुनाव परिणामों ने इन नेताओं की जुबान पर मानो ताला ही जड़ दिया हो। आम आदमी के हित को अनदेखी करने वाले नेता आज मजबूर और बेबस नजर आने लगे हैं। 

भले ही इस बेबसता के बीच आम आदमी को भले ही दिल्ली के चुनाव में आंशिक सफलता ही मिली हो, परन्तु इस सफलता की चर्चा ना सिर्फ देश में, दुनियाभर में हो रही है। दुनिया को केजरीवाल के अंदर ना जाने ऐसा क्या दिख रहा है कि भारत की बदलती राजनीति में उन्हें एक मसीहा के तौर पर देखा जाने लगा है। 

केजरीवाल के अंदर भ्रष्टाचार से लड़ने की ताकत का अंदाजा उस समय लगा जब 2011 में श्री अण्णा हजारे ने केजरीवाल के सहयोग से रामलीला मैदान में ‘‘इंडिया एगेंस्ट कप्शन’’  के बैनर तले अनशन किया गया था। उस ऐतिहासिक घटना को दुनियाभर के लोगों ने देखा था। 

कांग्रेसी नेताओं के अहंकार ‘‘हम चुनकर आयें हैं, हमसे बात करना हो तो चुन कर आयें। जनता ने प्रतिनिधित्व करने का दायित्व हमें दिया है। आपलोग एक भीड़ का हिस्सा हो।’’ जैसे शब्दों का चयन करना और उनको देश की जनता को सीधे तौर इस बात की चुनौती देना कि राजसत्ता में जनता कि नहीं नेताओं की बात सुनी जाती है। आखिरकार दिल्ली की जनता ने इनके इस अहंकार को नस्तनामूद कर दिया।

उस समय देश की आम जनता को लगा कि भ्रष्ट व्यवस्था बदलने के लिए सत्ता में अच्छे और इमानदार लोगों को सामने आना ही होगा। अण्णा आंदोलन के समय देशभर की यही भावना थी कि अच्छे लोगों को राजनीति में आना ही होगा। जिसकी कमान संभाली श्री अरविंद केजरीवाल, प्रशांत भूषण, मनीष सिसोदिया, योगेंद्र यादव, कुमार विश्वास, संजय सिंह व गोपाल राय ने। तमाम राजनीति विपरीत परिस्थितियों व सहयोगी के अड़ियल रूख के बावजूद इन लोगों ने हार नहीं मानी। 
राजनीति का क, ख, ग भी नहीं जानने वाले साथियों के साथ मिलकर एक विचारधारा ‘‘पूर्ण स्वराज्य’’ के सिद्धांतों को लेकर आगे बढ़ाने का दृढ़ संकल्प ले इन नन्हे सेनानियों की टोली ने दिल्ली में अपना भाग अजमाने चुनावी मैदान में कूद पड़े। इस बगावत के झंडे को जिसने भी थामा उसे जनता ने सर पै बैठा लिया। 40-40 साल से चुने जानेवाले कदवार नेता को एक अदने से आम आदमी के सामने मुंह की खानी पड़ी। लोकतंत्र मानो हंस कर कह रहा था ‘‘मुझे मजाक से भी हल्का मत लेना’’

इन सबके बीच कांग्रेस ने पुनः एक नई चाल चली, इन लोगों ने अण्णाजी को पुनः अनशन कराने और देश की भावना को बांटने की साजिश रची। आनन-फानन में एक लंगड़ा लोकपाल सदन के पटल पर लाया गया। भाजपा के नेता तो इस लंगड़े बिल को पारित करने के लिए इतने उतावले दिखे कि उन्होंने यहां तक कह डाला कि इसे पारित करने के लिए वक्त ना मिले तो बिना बहस के ही इस बिल को पारित किया जा सकता है। इन दोंनो राजनैतिक पार्टियों के उतावलेपन से साफ हो गया था कि केजरीवाल के बढ़ते कद का इनको पहले से ही आभास हो चुका था। जिसे ये लोग लोकपाल बिल चाहे जैसा ही क्यों न हो पारित कर दिल्ली की जनता का ध्यान बांट देना चाहते थे। ताकि चुनाव में आम आदमी पार्टी को करारी शिकस्त दी जा सके साथ ही देश में बन रहे नये राजनीति धुर्वीकरण को रोका जा सके।

कहावत है ‘‘जो लोग दूसरों के लिए गड्ढा खोदतें हैं खुद उसमें गिरते हैं’’ देश की राजनीति ने नई करवटें लेनी शुरु कर दी। अण्णा को आंदोलन राळेगांव सिद्धी से शुरु होकर राहुल गांधी तक सिमटकर रह गई। 

 जोड़-तोड़ की राजनीति और गठबंधन धर्म की राजनीति ने देश को भीतर ही भीतर दीमक की तरह खोखला बना दिया है। मसरुम की तरह फैलते राजनीति दलों के गठबंधन की खेती सिर्फ धन पैदा करने की फसल बनकर रह गई। लोकतंत्र के चारों खंभे इस लहलहाती खेती को ललचाई आंखों से देखते और हर कोई अपने बाड़े-न्यारे करने में लग गये। बंदरबांट की इस राजनीति के बीच अचानक से एक हल्की सी चिंगारी पैदा कर दी है केजरीवाल ने।

मेरी एक कविता - 
भले ही अंधरे ने बसा लिया हो साम्राज्य दुनिया में सदा,/ बस एक चिंगार भर से ही कांप जायेगा वह सदा।
जागते रहो...जागते रहो....जागते रहो...../ ठक...ठक....ठक...ठक....ठक...ठक....
बस इस शब्दचाप से ही / चोर भाग जाएगा सदा।
-शम्भु चौधरी 
 25/12/2013

1 विचार मंच:

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vandana gupta ने कहा…

शम्भु चौधरी जी बिल्कुल सटीक विचार व्यक्त किये हैं आपने ………आज इसी की दरकार है। इसी पर मैने भी कुछ यूँ लिखा है :
जाने कैसा मेरा मुझसे लिजलिजा नाता है
बस लकीर का फ़क़ीर बनना ही मुझे आता है
बदलाव की बयार भी मुझको चाहिए
जादू की मानो कोई छड़ी होनी चाहिए
जो घुमाते ही अलादीन के चिराग सी
सारे मसले हल करनी चाहिए
मगर सब्र की कोई ईमारत ना मैं गढ़ना चाहता हूँ
बस मुँह से निकली बात ही पूरी करना चाहता हूँ
खुद को आम बताता जाता हूँ
मगर खास की श्रेणी में आना चाहता हूँ
आम -ओ- खास की जद्दोजहद से
ना बाहर आना चाहता हूँ
जो है जैसा है की आदत से न उबरना चाहता हूँ
यही मेरी कमजोरी है
जिसका फायदा भ्रष्ट तंत्र उठाता जाता है
और मैं आम आदमी यूं ही
सब्जबागों में पिसा जाता हूँ
साठ साल से खुद को छलवाने की जो आदत पड़ी
उससे ना उबर पाता हूँ
मगर किसी दूजे को छह साल भी
ना दे पाता हूँ
जो मेरे लिए लड़ने को तैयार है
जो मेरे लिए सब करने को तैयार है
उसे ही साथ की जमीन ना दे पाता हूँ
फिर क्यों मैं बार बार चिल्लाता हूँ
फिर क्यों मैं बार बार घबराता हूँ
फिर क्यों मैं बार बार दोषारोपण करता हूँ
जब आम होते हुए भी आम का साथ ना देता हूँ
नयी परिपाटी को ना जन्मने देता हूँ
ये कैसा आम आदमी का आम आदमी से नाता है
जो आम को आम बने रहने के काम ना आता है

इसीलिए सोचता हूँ
जाने कैसा मेरा मुझसे लिजलिजा नाता है
बस लकीर का फ़क़ीर बनना ही मुझे आता है

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